Feminism 'स्त्री-विमर्श यानी फेमिनिज़म" -by Vandana Yadav

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वर्तमान में “स्त्री-विमर्श” का अर्थ पुरुषों से नफ़रत करना या केवल महिलाओं के हितों से जुड़े रहना माना जा रहा है जबकि इसका अर्थ दोनों पक्षों की आपसी समानता से है । महिलाओं के लिए पुरुषों के सामान अपने हक़ चाहना, स्त्री-विमर्श की बात है जिसे अंग्रेजीदां बोलचाल के आधुनिक समाज ने “फेमिनिज़्म” नाम दे दिया | भाषा के साथ हम अनजाने में जिस भाषा से शब्द लिया गया होता है, वहाँ की संस्कृति भी अपना लेते हैं और कभी जब वह संस्कृति ना अपनाई गई हो तब भी उस संस्कृति का अक्स शब्द से जुड़े अधिकार मांगने वाले लोगों में ढूंढने लगते हैं | कमोबेश यही स्थिति भारतीय महिलाओं के साथ है |
पढने की आज़ादी, शिक्षा प्राप्त करने का हक़, मन चाहे क्षेत्र में काम करने की स्वन्त्रता और काम के बराबर घंटों के अधिकार की समानता, उसी आधार पर पारिश्रमिक का हक़ है, स्त्री-विमर्श ! महिला और पुरुष के एक सामान कार्यों को समान मेहनताना मिलना है फेमिनिज़्म !
जब पहली बार महिलाओं के हक़ में आवाज़ उठाई गई थी, उस समय महिलाओं के पक्ष में हालात बहुत ज़्यादा खराब थे । स्थितियाँ बदलीं ज़रूर हैं पर पूरी तरह सुधार आज भी नहीं हुआ । अलबत्ता फेमिनिज़्म शब्द के अपनी-अपनी समझ के अनुसार अनेक अर्थ गढ़ लिए गए । उन्नति की लहर से दूर, अपने हक़ की आवाज़ उठाने में नाकाम महिला जो तरक्की के आख़ीरी छोर पर खड़ी है, उसका संघर्ष जाने बैगेर बहुत से लोग उसके समर्थन में जुट गए । शहरी चमक-दमक से चौंधियाईं आँखों वाले लोग, दो जोड़ी कपड़ों में रहने को मज़बूर, भूख की मार सहते-सहते तिनका हो गई देह को, न्याय दिलवाने निकल पड़े हैं । उनके लिए महिला विमर्श का मतलब जागरूक समाज का हिस्सा होना है, किसी की भलाई के लिए आवाज़ उठाना है, बिना यह जाने कि उस व्यक्ति की भलाई किस तरह की जानी है ।
स्त्री विमर्श आज एक फैशन बन गया है । जब भी महिलाओं के विमर्श की बात आती है, एक सिरे से पुरुषों को कोसना शुरू कर दिया जाता है । समूची पुरुष जाति को विरोधी और अत्याचार करने वाला मान लिया जाता है । सवाल यह है कि क्या वास्तव में पुरुष हमेशा से समस्या रहे हैं ? क्या उन्होंने हर बार महिलाओं के साथ सिर्फ अन्याय ही किया ? क्या वे सैदेव दमनकर्ता की भूमिका में रहे ? क्या किसी भी युग में महिलाओं को उचित स्थान नहीं मिला ?
हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रंथ महिलाओं की स्थिति का कोई और ही रेखा चित्र खींचते हैं । कृष्ण के युग में प्रेयसी से प्रथक राधा और रुक्मणी का उच्च सामाजिक स्थान था । मीरा बाई की प्रशासनिक पकड़ और सामाजिक सम्मान का परिचय भी इन्हीं धार्मिक ग्रंथों से मिलता है । जीवन साथी चुनने के अधिकार की आज़ादी उस युग में महिलाओं को थी । महाभारत काल में पांचाली की ख्वाहिश को तत्कालीन समाज ने सम्मनित स्थान दिया । एक स्त्री के पाँच पति होने की सच्चाई को ना सिर्फ स्वीकार किया गया बल्कि इस सत्य को निर्विरोध रूप से मान कर उन सभी छः जनों को सम्मानित सामाजिक जीवन में स्थान मिला ।
रामायण युग में स्त्रियों की स्थिति सशक्त महिला की थी । उस समय महिलाएँ युद्ध में अपने पति के साथ जाया करती थीं । कैकेयी युद्ध में अपने पति के साथ रथ पर सवार थी इसीलिए वह मुसीबत के समय राजा दशरथ के रथ का पहिया बन सकी ! उस समय में महिलाओं को अपने विवाह से जुड़े निर्णय लेने का अधिकार था । सीता सरीखी महिला ने अपने जीवन के तमाम महत्त्वपूर्ण निर्णय स्वयं ले कर यह साबित किया कि उस युग की औरत किसी तरह पुरुषों से कम नहीं थी । चौदह वर्ष पति के बिना महलों में रहने या वनगमन में पति राम के साथ जाने का निर्णय भी उस स्त्री का ही था । मांडवी सी महान व्यक्तित्व की धनी स्त्रियाँ भी उस कालखंड में रहीं । मंदोदरी जैसी महिलाओं के बारे में जान कर पता लगता है कि उस युग की महिला का राजसत्ता में योगदान और सामाजिक ओहदा क्या था । त्रिजटा सरीखी महिला जो सैनिक कमांडर की भूमिका में थी, वह यह बताने में सफल है कि उस युग में महिलओं की भी ‘आर्मी’ थी जो युद्ध और सुरक्षा जैसे मुद्दों में गहरी दखल रखती थीं | यानी राजकीय और शासकीय मामलों में भी महिलाओं की अहम् भूमिका थी ।
प्राचीन ग्रंथों से निकल कर इतिहास के पन्नों में बसी वीर गाथाओं में भी हिंदुस्तानी महिलाओं ने शौर्य की नई परिभाषाएँ गढ़ीं । आज के आधुनिक युग में सर से पैर तक बुर्के में रहने वाली कौम की एक जांबाज़ महिला को ना सिर्फ पहली मुस्लिम शासक होने का गौरव हासिल हुआ बल्कि रज़िया सुलतान पहली और एक मात्र महिला शासक बनी । उस स्त्री के शौर्य – पराक्रम और राजनितिक सूझ-बुझ ने उसे शासिका ना मान कर ‘सुलतान’ का ख़िताब दिलवाया । इससे साबित होता है कि योग्यता ही मायने रखती है |
इतिहास गवाह है रानी लक्ष्मी बाई की वीरता का । अंग्रेज हुक्मरान जिस औरत के नाम से काँपते थे वह हमारी ही मिट्टी की पैदाइश थी । हाड़ी रानी का शौर्य और पन्ना धाय का बलिदान, महिलाओं की सूझ-बुझ और उनके ओहदों के बारे में बहुत कुछ बताता है । कहने का तात्पर्य है कि जिन महिलाओं में अदम्य साहस था, शासन करने का माद्दा था, उन्हें कोई ताकत, कभी रोक नहीं सकी ।
आरंभिक दौर में जो हालात महिलाओं के लिए समानता और सम्मान लिए थे, वही बाद के समय में धीरे – धीरे बदल गए । यह बदलाव घुटन और पराधीनता तक पहुँच गया । बदले हालात में अपनी पहचान फिर से पाने के लिए महिलाओं ने लम्बी लड़ाई लड़ी । सावित्री बाई फुले पहली महिला शिक्षिका थीं । उन्होंने बच्चियों को शिक्षित करने के लिए स्कूल खोले । वही पहली प्रधानाध्यापिका बनीं । सावित्री बाई ही घर से बाहर निकल कर काम करने वाली पहली महिला थीं । उन्होंने आधुनिक महिला के स्ववरूप की नींव रखी । इस सब के लिए सावित्री बाई फुले के पति ज्योति राव फुले के साहस और दूरगामी सोच के लिए जितनी भी तारीफ़ की जाए, वह कम है । संकीर्ण मानसिकता वाले समाज में इस तरह के क्रांतिकारी क़दम उठाना हिम्मत की बात थी । ज्योति राव ने अपनी पत्नी को शिक्षित करने से ले कर उसे इसी पथ पर आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया और हर संभव मदद की । उन्होंने सामाजिक विडंबनाओं को झेला पर पत्नी को आगे बढाया ।
राजेंद्र बाला घोष की पहली साहित्यकारा के रूप में कहानी प्रकाशित करने वाले संपादक पुरुष थे । बंग महिला की ‘दुलाई वाली’ नामक कहानी को स्थापित साहित्यकारों ने ही अपने बीच स्थान दिया । बेशक़ उनकी लेखनी में वह बात थी कि उन्होंने अपना रास्ता निर्धारित किया परंतु महिलाओं के समाज से आई पहली प्रतिभा को स्वीकारने वाले आख़िरकार पुरुष ही थे ।
सर्वप्रथम डॉक्टर बनने वाली, पहली वकील महिला और सबसे पहली इंजिनियर बनने वाली महिला को पढ़ाने की शुरुआत करवाने वाले उसके परिवार के पुरुष थे । हर क्षेत्र में नौकरी करने आई महिला को पहली बार किसी ना किसी पुरुष ने ही नियुक्ति दी । बेशक अपनी काबिलियत के चलते महिलाएं ऐसे स्थानों तक पहुंचीं पर राजा राम मोहन राय सरीखे समाज सुधारकों के कारण स्त्रियों की दशा सुधरी । वे जन्म ले सकीं, साँस ले सकीं, जीवित रह सकीं तभी स्त्रियों की कौम ने शिक्षा का मार्ग अपनाया । अपने आप को पहचाना, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी ।
पहली बालिका जिसने अपने हाथों में पुस्तक उठाई, निरक्षर स्त्री समाज के बीच से उसे साक्षर बनाने की शुरुआत करने वाले उसके पिता, पुरुष थे । स्कूलों का आभाव झेल रहे आधुनिक भारत के दूर-दराज़ इलाकों में बहन को साइकिल के कैरियर पर बैठा कर अपने साथ स्कूल ले जाने वाला भाई भी पुरुष है । वह पहली स्त्री जिसके जीवनसाथी ने उसे पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़े होने को प्रेरित किया, वह भी पुरुष था । प्रत्येक वह महिला जिसके परिवार जनों ने उसे आगे बढ़ने को उकसाया, प्रेरित किया या बाध्य किया, उनके बीच का वह पुरुष खराब कैसे हो गया ? पुरुष, महिलाओं के जीवन में सिर्फ खलनायक नहीं है । वह संरक्षक, सहायक, मित्र और हितैषी भी है ।
यक़ीनन सभी पुरुषों ने अपना फ़र्ज़ नहीं निभाया इसीलिए आज भी महिलाएँ अपनी लड़ाई स्वयं लड़ रही हैं । यह भी सच है कि बहुत से पुरुषों ने महिलाओं की तरक्की के मार्ग अवरुद्ध किये पर सवाल यह उठता है कि क्या हर बार ‘विलन’ पुरुष ही है ? क्या हर एक महिला ने दूसरी महिला के साथ सिर्फ न्याय किया ? क्या स्त्रियाँ हमेशा से एक-दूसरे की सिर्फ मदद ही करती रही हैं ? क्या उन्होंने स्त्री जाति की तरक्की में कभी बधा नहीं पहुंचाई ?
महानगरीय आबादी के अतिरिक्त दूर-दराज़ के ग्रामीण तबकों में आज भी औरतें शिक्षा और स्वास्थ जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं । उन्हें स्त्री विमर्श के मायने नहीं मालूम । वे प्रतिदिन के जीवन संघर्षों में खुद को खपाए हुए हैं । ऐसे इलाकों में अब तक समानता के अधिकार की रौशनी नहीं पहुँची । वहॉं अब तक किसी ने उन महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित नहीं किया । हर बार प्रोत्साहन पुरुषों की ओर से ही मिले ऐसा इसलिए आवश्यक है कि आज भी पुरुष ही समाज का कर्ता-धर्ता है । वह अपनी मासूम बच्चियों का संरक्षक है, उनका भविष्य निर्माता है । गाँव-देहात में अब भी बच्चियों को शिक्षित करने का अधिकार पुरुष की मर्ज़ी से हो कर गुज़रता है । ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में महिलाओं की तरक्की का ज़रिया आज भी पुरुष है । उनके आगे बढ़ने और शिक्षित होने में पुरुष यानी पिता-भाई या पति की ही मुख्य भूमिका है ।
शहरों और कस्बों की महिलाओं ने तरक्की की लंबी राह पार की । उन्होंने संघर्ष का लम्बा दौर झेला। वे सताई गईं, उन्हें दबा कर रखा गया पर उन्होंने हार नहीं मानी । बेशक कल्पना चावाला, सुनीता विलियम्स, इंदिरा नूई और अरुंधति राय सरीखी महिलाएं मुट्ठी भर हैं, पर वे हैं तो ! उन्होंने आगे बढ़ कर वह स्थान हासिल तो किया ! वे अन्य महिलाओं के लिए मिसाल बनीं । ध्यान देने लायक बात यह है कि इन सब मुद्दों के बावजूद औरतों ने अपना हक़ पाने की जिद्द नहीं छोड़ी । बेशक राह लंबी है, संघर्ष अब भी जारी है परंतु स्त्री होना, थक कर बैठने का नाम नहीं है । वे अपनी मंज़िल पर पहुँच कर विजयी मुस्कान के साथ नए युग का स्वागत करने की प्रतिज्ञा का नाम हैं ।
सभी पुरुष महिलाओं की तरक्की में हमेशा सहायक नहीं थे बल्कि अधिकांशतः उन्होंने औरतों की तरक्की को रोका । महिलाओं के बढ़ाते क़दमों में बेड़ियाँ डालीं, उनका मार्ग अवरुद्ध किया पर सवाल फिर यह है कि क्या ऐसा सिर्फ पुरुषों ने ही किया ? क्या महिलाएं सिर्फ एक-दूसरे की तरक्की ही चाहती रही ? ज़ाहिर तौर पर सभी सवालों के ज़वाब ‘ना’ हैं क्योंकि पहले तो घर की बुजुर्ग महिलाओं ने ही बेटियों को उनके पसंद के श्रेत्र चुनने से रोका फिर सास-ननद या परिवार की अन्य महिलाओं ने भी अहम् भूमिका निभाई !
यह सही समय है इस मुद्दे पर नए तरीक़े से सोचने का, नई धारणाएं गढ़ने का । महिलाओं को आत्मबल और शिक्षा की सीढियाँ चढ़ कर अपने लिए बुलंद आसमान तलाशना होगा । पीछे छूट गईं अपनी सहेलियों का हाथ पकड़ कर उन्हें भी अपने साथ ले कर आगे बढ़ना होगा । उनमें समानता और तरक्की के स्वत्रंत आकाश को छूने की ललक जगानी होगी ।
जिस तरह सभी महिलायें एक-दूसरे की मित्र साबित नहीं होतीं उसी तरह सभी पुरुष, स्त्रियों के हक़ में उठती आवाज़ के पैरोकार नहीं हो सकते । यही प्रकृति है । परंतु वे लोग जो नारीवाद यानी फेमिनिज़्म का मतलब समझते हैं, वे एकजुट हो कर आगे आएं । वे महिलाओं के सशक्तिकरण की पताका थामें और समाज को नया नज़रिया दें । वे महिलाओं के लिए पुरूषों के समान समानता की, बराबरी की और स्वस्थ समाज की ज़मीन तैयार करें ।

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