कितने मोर्चे इसकी लेखक है - श्रीमती वन्दना यादव जी

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आप सभी को नमस्कार!

“आईना”, के माध्यम से आज हम आपका एक ऐसे उपन्यास से परिचय करवा रहे हैं जो संभवत: एक बिल्कुल नए और अछूते विषय पर लिखा गया उपन्यास है । ऐसा विषय, जिस के बारे में सामान्य नागरिकों को ज्यादा जानकारी भी नहीं है ।

उपन्यास “कितने मोर्चे” की रचियता श्रीमती वन्दना यादव जी हैं जो एक लेखक, कवियत्री और समाज सेविका हैं |

श्रीमती वन्दना यादव KFA की एक मुख्य सदस्य हैं । आप KFA के कार्यों में सदैव मददगार रहती हैं और आप KFA के लिए लगातार जी – जान से काम कर रही हैं !

उपन्यास परिचय –

यह उपन्यास ऐसे माहौल में रहने पर लिखा गया जो मुख़्यधारा के समाज से अलग एक ऐसा समाज है जहाँ के नियम-कायदे, जीवन शैली और व्यवहार सामान्य समाज अलहदा हैं ।

देश प्रगति करता है और आम नागरिक सुरक्षित माहौल में चैन की नींद सोते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि सरहद पर कोई जाग रहा है।

सवाल यह है कि सबकी सुरक्षा करने वाले सैनिक यह जज्बा कहाँ से लाते हैं कि वे सब कुछ भुला कर सिर्फ सरहद की रक्षा करते रहें ?

अगर वे अपने परिवार की जिम्मेदारियों, कर्तव्यों और अपने बच्चों की सुरक्षा से बेपरवाह सीमाओं की रखवाली कर रहे हैं तब उनके हिस्से के कर्तव्य कौन निभाता है ?

प्रत्येक कैन्टोनमेंट में बार्डर पर तैनात सैनिकों के परिवारों को सुरक्षित माहौल देने के लिए एस. एफ क्वाटर्स यानी “सपरेटेड फैमली क्वाटर्स” की व्यवस्था होती है ।
पंजाब में रेलवे स्टेशन से बाहर आ कर एक बुजुर्ग “भैय्या, एस. एफ क्वाटर चलो” कहते हुए रिक्शे में सवार हो गए ।

रिक्शेवाले ने पलट कर बुजुर्ग से पूछा, “उत्थे ही जाणां बाऊजी, जित्थे छड्डी हुईयाँ रेन्दी हां ? (बाबूजी आपको वहीं जाना है ना, जहाँ छोडी हुई (औरतें) रहती हैं !’)

जी हाँ, यह उपन्यास ऐसी ही औरतों, बच्चों और युवाओं को केन्द्र में रख कर लिखा गया है जो मजबूरन अकेले रह रहे हैं ।
इस समाज में अकेले रहना पसंद नहीं, अनिवार्यता है । यहाँ दोनों पक्षों को सपरेशन यानी अकेलापन चुनना नहीं होता, यह फौजी से शादी करने पर अपने आप जीवन का हिस्सा हो जाता है !

कैन्टोन्मेन्ट का जीवन एक अलग तरह की दुनिया है । और ऐसे जीवन में भी वहाँ जीवनसाथी से अलग रहने वाला एक अलग समाज जी रहा है, फल-फूल रहा है !

सरहद पर चलने वाली गोली की ख़बर, वहां होने वाले बम्बारमेंट, मोर्टार के हमलों का इन महिलाओं पर कैसा असर होता है ? ऐसी खबरों से वे घबरा जाती हैं या बेपरवाह रहती हैं इसका सजीव चित्रण इस उपन्यास में हैं !

शहीद की पत्नी जिसे सेना की ज़ुबान में “वीर नारी कहते हैं, उसके संघर्ष… बच्चों की परवरिश और जीवन में उठने वाले हर दिन के झंझट । सब कुछ ये अकेले झेलती हैं ! देश और समाज शहीद का नाम तक भुला देते हैं पर यहाँ बलिदान देने के मौके ख़तम नहीं होते ।

इस उपन्यास को पढ कर ही जाना जा सकता है कि किस तरह देश और समाज के प्नति सैनिकों से ज्यादा बड़ा संघर्ष यहाँ रह रही औरतों का
पिता के होते हुए भी बच्चे अपने पिता के बिना बड़े होते हैं । निपट अकेले बच्चों को बड़ा करना महिलाओं के लिए कैसी-कैसी चुनौतियाँ लाता है, यह

यहाँ बड़े होते बच्चों को पिता के होते हुए भी उनका साथ ना मिलना, साईक्लोजिकल उन पर गहरा प्ररभाव ड़ालता है । इन बच्चों की सोच, इनकी शरारतें, यहाँ की मानसिकता, बाकी समाज से अलग है !

फौजी माहौल में बड़े होने के सुख बहुत हैं तो जटिलताएं भी ढेरों हैं । दारू की आसान उपलब्धता, टैंक और थ्री-टन की सवारी, हर दो-अढाई साल में होने वाले तबादले इन्हें सम्पूर्ण देश का नागरिक होने का आभास करवाते हैं | बहुत बार ये बच्चे अपने सम्पूर्ण देश का नागरिक यानी “भारतीय” कहने में फ़क्र महसूस करते हैं | लगातार घूमते रहने की प्रवृति इन्हें किसी भी जगह से बांध कर
दो पीढियों का संघर्ष यहाँ सिर्फ वैचारिक नहीं है । फौजी सोचते हैं कि वे सरहद पर रहते हुए परिवार के लिए बड़ी कुरबानी दे रहे हैं । छुट्टी आने पर उनका व्यवहार बहुत हद तक युनिट में कमांडिंग अफसर सा रहता है । जबकि बच्चे, वह रौब सहने को तैयार नहीं होते । उनका मानना है कि जरूरत के समय पिता उनके साथ कभी नहीं होते ।

सरहद पर दुश्मन की गोली के निशाने से छूट कर छुट्टी आया फौजी, अपने लिए वी. आई. पी. ट्रीटमेंट की चाह रखता है । वह भूल जाता है कि जीवन सुरक्षित सीमाओं के भीतर भी संघर्ष है । ऐसे में वह बच्चों को वह बाप कम, हिटलर ज्यादा लगता है ।

इस तरह के में अलगाव का ज़हर हर फौजी और फौजी ब्रैट किस तरह पी रहे हैंं | एक औरत माँ और पत्नी के दो रिश्तों के बीच पिस जाती है । यह और ऐसे अनेक मुद्दे इस उपन्यास में हैं ।

परिवार, रिश्तेदारों और समाज से कटे इस समाज की औरतों के अपने भी संघर्ष हैं । यहाँ महिलाएं अपनी आईड़ैंटिटी नहीं बना पातीं । हर जिम्मेदारी निभाती हैं मगर कंट्रोल कहीं ओर रहता है । ये अपने अधिकारों के लिए हर दिन आवाज़ उठाती हैं । अक्सर हार झेलने वालियाँ, बहुत बार जीत भी जाती हैं । एक अजब सी ख़ीज, अकेलापन, तनाव और हर किसी को शक के निगाह से देखने की प्रवृति यहाँ पूरा जीवन बन जाती है ।

जो जीवन मैने जीया, उसके बारे में मैं इतनी बेबाकी से सिर्फ इसलिए लिख सकी क्योंकि उसे मैने हर दिन
किसी हिन्दी उपन्यास के लिए यह पहली बार उठाए जाने वाला मुद्दा है कि एक स्वस्थ से दिखने वाले समाज की महिलाएं कैसा जीवन जी रही हैं ! कभी वे बहादुरी से स्थिति का सामना करती हैं, कभी निर्भीक, कभी हंसोड़, कभी सिर्फ माँ और पत्नी होती हैं तो कभी वे अपने बच्चों की पिता बन जाती हैं | सब तरह के किरदार निभाते-निभाते वे अक्सर अपने आप को भूल जाया करती हैं |

इस उपन्यास के द्वारा यह जानना दिलचस्प होगा किस तरह इस मॉर्डन समाज की औरतें भी इमोशनल और फिजीकर वायलेंस का शिकार हैं । इस समाज की नारी कैसे हार कर जीत जाने का माद्दा रखती हैं | इस महिलाओं के संघर्ष क्या हैं, वह हर दिन किस तरह के डर से दो-चार होती है यह भी और तमाम चुनौतियों से लड़ कर कैसे वे अपनी ग्रहस्थी की गाड़ी को अकेले, सही गति में आगे बढाती हैं इन सभी को जानने का मौक़ा है “कितने मोर्चे” !

जीवन का यह युद्ध हर फौजी की पत्नी प्रत्येक तीन वर्ष बाद, बार-बार जी रही होती है । तमाम संघर्षों के बावजूद यहाँ आनंद और ख़ुशियाँ ढूंढ ली जाती हैं । यहाँ रहने वाले परिवार आपस में मिलने-जुलने के संस्कार बनाए रखते हैं | यह साथ ही अकेले पलों में सम्बल देता है |

यह सबसे बड़ा सच है कि हर युद्ध, लड़ने के लिए नहीं होता । अधिकतर युद्धों को बिना लड़े, चतुराई से जीत लेना सबसे बड़ी कामयाबी होती है । इसके बावजूद एक सच यह भी है कि हर योद्धा, युद्ध नहीं जीतता । एस. एफ. की महिलाएं जो अकेले, अपने इमोशन्स का, बच्चों की उम्मीदों का, बुजूर्गों की अपेक्षाओं का और सरहद पर तैनात सिपाहियों की जिम्मेदारियों का युद्ध बिल्कुल अकेले लड़ती हैं, वे भी बहुत बार हार जाती हैं । पर यहाँ हार भी बहुत कुछ सिखाती है । ये महिलाएं हार से विचलित नहीं होतीं, एक-दूसरे के साथ से फिर ख़ड़ी हो जाती हैं | जीवन के समर में सारथी बनकर !

परन्तु क्या सभी महिलाएंं ऐसी ही हैं ? क्या सभी हार मान लेती हैं ? यह और ऐसी तमाम सच्चाईयाँ कैसे एक विशाल संख्या वाला समाज दिन-रात जी रहा है जिसकी भनक तक आम समाज को नहीं लगती । पर उस जीवन को जानने का हक हर जागरूक इंसान को है ।

अकेलापन सैनिकों पर क्या असर डालता है ? परिवार से दुरी का उन पर भी असर होता है ! कैसे यहाँ व्यक्तिगत लडाई सामाजिक बन जाती है और कब सामाजिक मुद्दे, घर में आ घुसते हैं । कैसे शांति काल में युद्ध की वीभिषिका झेल रहे इन परिवारों की सहन शक्ति जवाब दे देती है । किस तरह सरकारी नीतियाँ अक्सर इन्हें ढगती सी लगती हैं और यहाँ रह रही महिलाओं को पुलिसिया व्यवहार कब नागवार गुजरता है । जो परिवार, देश की सुरक्षा के लिए अकेलेपन का सहर्ष स्वीकार करलेते हैं, उन्हें बदले में जो व्यवहार आम लोगों से मिलता है, इसके बारे में भी उपन्यास में संकेत हैं |

सैनिक की शहादत समाज को गौर्वान्वित करती है मगर एस. एफ. के समाज में शहादत के मायने क्या हैंं । पति का पार्थिव शरीर, पिता की मृत देह यहाँ सिर्फ दुख नहीं लाती ।

दुश्मन देश हो या आतंकवाद हर स्तिथि को समझने का यहाँ नजरिया बिलकुल अलग है ।

इस उपन्यास में अनेक मुद्दों का जिक्र है । यहाँ के बाशिंदे उस तकलीफ़ भरे जीवन को कैसे हँसते-हँसते जी लेते हैं जहाँ अकेले रहने की आदत भविष्य के दांपत्य जीवन की नींव तक खोखला कर देती है । मात्र भूमि का फर्ज निभाने वालों को जीवन से जोड़े रखने वालों को जानने का जरिया है यह उपन्यास ।

फौजियों को अलग-अलग नस्ल के कुत्ते पालने का शौक होता है और अच्छा जीवन जीने के शौकीन फोजियों के बोर्डर पर जाने के बाद का जीवन है यह उपन्यास ।

हिन्दी उपन्यासों की श्रृंखला में संभवत: इस विषय पर लिखा गया यह अपनेआप में अनूठा और पहला उपन्यास है जिसमें इस अलग-थलग जीवन जी रहे समाज का बारीकी से चित्रण है ।

 

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